
वृंदावन की पवित्र भूमि में—जहाँ हर गली और चौक भगवान श्रीकृष्ण की मधुर लीलाओं का स्मरण कराते हैं—वहाँ एक सरल, निष्कपट और भक्ति-भाव से भरा व्यक्ति रहता था, जिसे सब प्यार से भोंदू कहते थे। उसका हृदय इतना पवित्र और मासूम था कि उसकी भक्ति ने स्वयं ठाकुर जी का ध्यान अपनी ओर खींच लिया।
यह भोंदू की वह भावुक कथा है, जिसमें उसकी सच्ची भक्ति और निष्कपट प्रेम इतने प्रभावशाली बन जाते हैं कि एक दिन स्वयं ठाकुर जी उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। भोंदू की सीधी-सादी प्रार्थनाएँ, उसकी ईमानदार बातें और अटूट विश्वास ने भगवान के साथ एक ऐसा संबंध बनाया, जिसे संसार की कोई शक्ति तोड़ नहीं सकती।
आइए, इस अद्भुत कथा की यात्रा पर चलें और देखें कि किस प्रकार भोंदू की मासूमियत ने श्रीकृष्ण के हृदय को पिघला दिया। यह कहानी हमें याद दिलाती है कि सच्ची भक्ति में किसी विशेष विधि की आवश्यकता नहीं—बस एक निर्मल, प्रेममय हृदय चाहिए।
भोंदू की सरलता और गुरु भक्ति
कई साल पहले की बात है, वृंदावन में एक संत का आश्रम था। संत के कई शिष्य थे, जो अत्यंत बुद्धिमान थे। उसी संत के आश्रम में गौशाला की सेवा करने वाला एक और शिष्य भी रहता था। वह बहुत ही सरल और भोला-भाला था। उसका असली नाम तो कुछ और था, लेकिन उसके भोलेपन के कारण सभी उसे प्यार से ‘भोंदू’ कहकर बुलाते थे।
धीरे-धीरे उसे भी ऐसा लगने लगा कि उसका नाम सच में भोंदू ही है। उसका स्वभाव इतना सरल था कि कोई भी उसे कुछ भी कह देता, तो वह उसे सच मान लेता। उदाहरण के लिए, अगर कोई कहता कि आज सूरज पश्चिम से उगेगा, तो वह इसे भी सच मान लेता। वह पूरी तरह से निष्कपट और अपने गुरुजी पर अटूट विश्वास रखने वाला व्यक्ति था। गौसेवा और कथा सुनने के अलावा उसे और कोई काम नहीं था।

गुरुजी के मुख से श्रीकृष्ण कथा सुनकर भोंदू की जिज्ञासा
हर शाम गुरुजी अपने शिष्यों को कथा सुनाते थे, और भोंदू भी बड़े मन से उनके सभी शिष्यों के पीछे बैठकर कथा सुनता था। जहाँ अन्य शिष्य केवल कथा सुनते थे, वहीं भोंदू गुरुजी की हर बात को पूरी तरह से सच मानता था। एक दिन कथा के दौरान, गुरुदेव श्रीकृष्ण जी की सुंदरता का वर्णन कर रहे थे और भांडीर वन में गौ चराने की बात कर रहे थे। भोंदू ने सोचा कि वह भी तो उसी वन में गायें चराने ले जाता है, लेकिन उसे तो कभी भगवान श्रीकृष्ण नहीं मिले।
भोंदू को लगा कि गुरुजी कोई पुरानी कथा नहीं बता रहे, बल्कि यह अभी की घटना है। भोंदू के मन में यह विचार आया कि शायद वह ही अभागा है, जो उसे अब तक ठाकुरजी के दर्शन नहीं हुए। वह मन ही मन सोचने लगा कि शायद उसने ही ध्यान नहीं दिया होगा। उसने निश्चय किया कि अगले दिन जब वह भांडीर वन में गायें चराने जाएगा, तो अवश्य ध्यान देगा। उसे गुरुजी की वाणी पर अटूट विश्वास था।

भांडीर वन में भोंदू का सखा श्रीकृष्ण से मिलन
अगले दिन सुबह होते ही भोंदू गायों को लेकर भांडीर वन पहुंचा। उसने गायों को चरने के लिए छोड़ दिया और चारों ओर श्रीकृष्ण को ढूंढने लगा। उसे पूरा विश्वास था कि भगवान यहीं कहीं होंगे, बस वह ही उन्हें देख नहीं पा रहा है। वह इतनी सरलता और भक्ति से भगवान को ढूंढ रहा था कि यह देख कर ठाकुरजी उसके भोलेपन पर मोहित हो गए और उनसे से रहा नहीं गया।
तभी अचानक भोंदू की नजर सामने से आ रहे गायों के झुंड पर पड़ी। उसी समूह के बीच में श्यामवर्ण भगवान श्रीकृष्ण पीतांबर पहने धीरे-धीरे उनकी ओर चले आ रहे थे। भोंदू उन्हें देखकर चकित रह गया और खुशी से उछल पड़ा। भगवान के कटाक्ष नेत्र, मोर मुकुट, और चंदन की सुगंध से भरा दिव्य रूप देखकर भोंदू पूरी तरह से मंत्रमुग्ध हो गया।
जब उसने ठाकुरजी को देखा, तो खुशी के मारे उसकी आँखों में आँसू आ गए और उसने उन्हें दंडवत प्रणाम किया। प्रणाम करके जैसे ही वह उठा, उसने देखा कि ठाकुरजी उसके सामने खड़े थे।
ठाकुरजी ने उससे पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है?” यह सुनकर भोंदू अपना असली नाम ही भूल गया और बोला, “मुझे मेरा नाम याद नहीं, लेकिन प्रेम से सब मुझे ‘भोंदू’ ही कहकर पुकारते हैं।”
भोंदू नाम सुनते ही ठाकुरजी हँस पड़े और बोले, “क्या तुम्हारा नाम भोंदू है?” भोंदू ने जवाब दिया, “हां, मेरा नाम भोंदू है। आपको यह नाम अच्छा लगा? उसने पूछा, “क्या आप वही ठाकुरजी हैं जिनके बारे में गुरुजी कथा सुनाते हैं?” तब भगवान ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “हाँ, हम वही श्यामसुंदर हैं।”

श्रीकृष्ण ने भोंदू से मांगी और रोटियाँ
श्रीकृष्ण ने कहा, “तुम सिर्फ बातें ही करोगे या कुछ खिलाओगे और पिलाओगे भी?”
भोंदू ने जवाब दिया, “आप मेरे हाथ की रोटियाँ खाएंगे।” इतना कहकर भोंदू ने अपनी पोटली में से रोटियाँ निकालकर भगवान श्रीकृष्ण के सामने रख दीं। ने सारी रोटियाँ खा लीं।
खाना समाप्त करने के बाद श्रीकृष्ण ने भोंदू से कहा, “और रोटियाँ लाओ।”
भोंदू ने जवाब दिया, “मैं इतनी ही रोटियाँ लाया था ,इससे ज्यादा मैं नहीं खा सकता।”
तब श्रीकृष्ण मुस्कराते हुए बोले, “तो फिर कल से और रोटियाँ लाना, क्योंकि हमें बहुत भूख लगती है।”
ठाकुरजी अपनी गाय लेकर चले गए, और भोंदू भी अपनी गाय लेकर चला गया।

भोंदू की भोली सोच और ठाकुरजी के साथ बढ़ती दोस्ती
भोंदू इतनी भोलेपन से भरा था कि उसे लगा कि ठाकुरजी इसी तरह सबके पास आते हैं और मिलते हैं। उसे यह भी लगा कि वह ही दुर्भाग्यशाली था जो इतने वर्षों तक ठाकुरजी से नहीं मिल सका, लेकिन अब मिल गए हैं। इसी सोच में वह आश्रम गया और इस घटना के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा, न ही गुरुजी को बताया।
दूसरे दिन भोंदू ने आश्रम से अधिक रोटियाँ और सब्जी लेकर गाय चराने जाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे ठाकुरजी उसके सखा बन गए। अब वह रोज आश्रम से ठाकुरजी के लिए वन में भोजन ले जाता और उनके साथ ही खेलता।

जब भोंदू ने बताया गुरुजी को भांडीर वन में ठाकुरजी से मिलन के बारे में
ज्यादा रोटियाँ और सब्जी ले जाने की वजह से एक दिन रसोई घर के महाराज जी ने जाकर गुरुजी से शिकायत की। गुरुजी ने भोंदू से पूछा, “क्या बात है भोंदू, तुम पिछले कुछ दिनों से बहुत खुश नजर आ रहे हो। तुम तो इतना भोजन नहीं खाते, फिर इतनी सारी रोटियाँ और सब्जी किसके लिए ले जा रहे हो?”
भोंदू ने सहजता से उत्तर दिया, “जब मैं भांडीर वन में जाता हूँ, तो ठाकुरजी भी वहाँ आते हैं अपनी गैया चराने। उन्हें बहुत भूख लगती है इसीलिए उन्होंने मुझसे ज्यादा रोटियां और सब्जी लेकर जाने को कहा है।”
गुरुजी ने पूछा, “कौन से ठाकुरजी?”
भोंदू ने उत्तर दिया, “वही ठाकुरजी जिनके बारे में आप कथा में बताते हैं।”
गुरुजी ने आश्चर्यचकित होकर कहा, “वह ठाकुरजी यहाँ आते हैं?”
भोंदू ने उत्साह से जवाब दिया, “हाँ, वही ठाकुरजी आते हैं।”
गुरुजी ने पूछा, “ठीक है, वे कैसे दिखते हैं?”
तब भोंदू ने उनके स्वरूप का विवरण करते हुए कहा, “जहाँ भी उनके चरण पड़ते हैं, वह जगह खिल उठती है और सुगंधित हो जाती है। उनके कमल जैसे नेत्र हैं।”
गुरुजी ने सोचा कि कोई और होता तो शायद उनकी बातों पर विश्वास नहीं करता, लेकिन भोंदू जैसी निश्छल और भोले व्यक्ति की बात झूठी नहीं हो सकती। गुरुजी ने कहा, “जब तुम आज ठाकुरजी से मिलो, तो उन्हें बताना कि तुम्हारे गुरुजी ने उन्हें प्रीति भोज के लिए बुलाया है।”
भोंदू यह सुनकर बहुत खुश हो गया, क्योंकि उसे लगा कि यह काम तो किसी अन्य शिष्य को भेजकर भी किया जा सकता था। गुरुजी ने उसे स्वयं आमंत्रित किया, यह सोचकर वह बेहद आनंदित हो गया।

भोंदू की ठाकुरजी से गुरुजी की मुलाकात की मांग
भोंदू खुशी से झूमते हुए भांडीर वन की ओर बढ़ा। जैसे ही वह वहाँ पहुँचा, उसने देखा कि श्याम सुंदर उसकी ओर आ रहे थे। भगवान ने उसे देखा और कहा, “भोंदू, हमें बहुत तेज भूख लगी है, जल्दी से कुछ खिलाओ।”
भोंदू ने तुरंत पत्तल सजाया और कहा, “मेरी एक प्रार्थना है कि आप मेरे साथ आश्रम चलिए। गुरुजी आपसे मिलना चाहते हैं।”
परंतु ठाकुरजी ने जवाब दिया, “देखो भोंदू, हम किसी से नहीं मिलते। हम तुम्हारे सखा है। हम सिर्फ तुम्हारे साथ खाना खाएँगे और खेलेंगे, लेकिन गुरुजी से नहीं मिलेंगे।”
भोंदू ने ठाकुरजी के चरण पकड़ लिया और कहा, “मैं तो आपको जानता भी नहीं, लेकिन गुरुजी ने ही बताया कि आप यहाँ गाय चराने आते हैं, इसलिए मैं आपको जान पाया। मेरे गुरु ने आपको बुलाया है, कृपया मना मत कीजिए, मेरे साथ चलिए।”
ठाकुरजी ने उत्तर दिया, “देखो भोंदू, हम तुम्हारे साथ सब कुछ करेंगे, लेकिन किसी और से नहीं मिलेंगे, चाहे वह गुरुजी हों या उनके गुरुजी।
ठाकुरजी रोटियाँ और गुड़ खा रहे थे, भोंदू ने गुस्से में आकर रोटी खींच ली और कहा, “यह भी मत खाओ, यह भी गुरुजी का है।” उसने पत्तल भी उठा लिया और कहा, “यह भी गुरुजी के यहाँ का बना है। अगर आप गुरुजी से नहीं मिल सकते, तो मुझे भी आपसे मिलना नहीं है।”
ठाकुरजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “तू अभी नहीं समझता, बड़े-बड़े लोग हिमालय जाकर मेरी तपस्या करते हैं, और हम तेरे सामने इतनी सहजता से बैठे हैं।”
भोंदू ने दृढ़ता से कहा, “मैंने गुरुजी की सेवा की है और इसके परिणामस्वरूप आपके दर्शन हुए हैं। इसका मतलब है कि गुरु की सेवा तपस्या के बराबर है।”
इतना कहकर भोंदू ने जाने का इरादा किया। भोंदू अपना सारा सामान और गैया को इकठ्ठा करके जाने लगा। लेकिन ठाकुरजी ने उसे रोकते हुए कहा, “रुको भोंदू, एक बार सुनो।” भोंदू ने उत्तर दिया, “मैं तभी रुकूँगा जब आप यह वचन देंगे कि गुरुजी से मिलेंगे।”

गुरुदेव के आश्रम में ठाकुरजी का अलौकिक आगमन
भोंदू धीरे-धीरे आश्रम की ओर लौट रहा था, लेकिन जैसे ही वह दूर जाने लगा, ठाकुरजी के चेहरे पर चिंता की लकीरें खिंच गईं। ऐसा लग रहा था जैसे कुछ अनमोल उनके हाथ से छूट रहा हो। ठाकुरजी तुरंत भोंदू के पीछे दौड़े और उसकी कमर पकड़कर चढ़ गए। उन्होंने कहा, “भोंदू, मत जाओ। मुझे जहां भी ले चलोगे, मैं वहां चलूंगा। चलो, गुरुजी के पास चलो।”
आश्रम में, गुरुदेव भोंदू का इंतजार कर रहे थे। अचानक उन्होंने देखा कि गायों के झुंड के बीच, भोंदू की पीठ पर मुरलीधर विराजमान हैं। यह दृश्य एकदम अलौकिक था। गुरुजी ने मंत्रमुग्ध होकर देखा कि नंदनंदन उनके सामने खड़े हैं। जब गुरुजी को होश आया, तो उन्होंने भोंदू को सम्मानपूर्वक प्रणाम किया और कहा, “तेरी भक्ति को प्रणाम है। आज तेरे कारण स्वयं त्रिलोकीनाथ मेरे आश्रम में आए हैं।”



