भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला

This is the story of King Shri Jaimal Ji Maharaj, the ruler of the Merta state in Rajasthan, who was a devoted follower of Lord Krishna. His story is mentioned in the Vaishnav tradition’s “Bhaktmala” text. He was a disciple of the Rasik Shiromani Saint Shri Hit Harivansh Mahaprabhu Ji. He was an ardent devotee of Shri Radha-Madhav Ji, but his idol was Dhanushdhari Shri Ram. Due to his service to saints and the grand organization of saint congregations, his capital city, Merta, came to be known as “Mini Mathura.”

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
भक्त राजा जयमल जी: मीराँबाई के भाई का चरित्र

मारवाड़ नरेश राव दूदा जी के तीन पुत्र थे – रायमल जी, वीरम जी, और रत्नसिंह जी। रत्नसिंह जी की सुपुत्री थीं भक्त मीराँबाई, और श्री रायमल जी के पुत्र थे भक्त राजा श्री जयमल जी। इस प्रकार, जयमल जी और मीराँबाई भाई-बहन थे।

मेड़ता के नरेश राव जयमल भगवान श्री कृष्ण के अनन्य उपासक थे। उन्हें भक्ति के गहरे संस्कार अपनी बहन मीराँबाई से प्राप्त हुए थे। मीराबाई राव जयमल के चाचा की लड़की थीं, और दोनों भाई-बहन की आयु में अधिक अंतर नहीं था। उस समय राठौड़ों में मेड़ता रियासत सबसे बड़ी मानी जाती थी, और राव जयमल मेड़ता के नरेश थे।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
संत सेवा में श्री जयमल जी का निस्वार्थ भाव

एक बार, साधु-संतों की एक टोली श्री जयमल जी के यहाँ ठहरी। उसी समय, संतों में से एक, जिनके पैर में अत्यधिक पीड़ा थी और चलने में असमर्थ थे, अपने गुरुदेव के दर्शन की प्रबल इच्छा रखते थे। उनके गुरुदेव पास के एक गाँव में ठहरे हुए थे। संत ने अपनी समस्या श्री जयमल जी को बताई और उनसे एक घोड़े की मांग की ताकि वे सवारी करके अपने गुरुदेव के दर्शन कर सकें।

श्री जयमल जी ने बिना समय गंवाए संत को अपना घोड़ा प्रदान कर दिया। संत अपने गुरुदेव के पास पहुंचे और दर्शन का सौभाग्य प्राप्त किया। गुरुदेव ने जब घोड़े को देखा, तो उसकी सुन्दरता और शक्ति ने उन्हें प्रभावित किया। उनके मन में घोड़े को पाने की इच्छा जाग उठी। यह देखकर उनके शिष्य ने बिना संकोच के घोड़ा गुरुदेव को समर्पित कर दिया।

जब संत वापस लौटे, तो उन्होंने पूरी घटना ईमानदारी से श्री जयमल जी को बता दी। संत की सच्चाई और अपने गुरुदेव के प्रति भक्ति को देखकर जयमल जी प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, “मेरे पास जो कुछ भी है, वह संतों की सेवा के लिए ही है। यदि और घोड़ों की आवश्यकता हो, तो बेहिचक ले जाइए।”

श्री जयमल जी की इस निःस्वार्थ सेवा भावना को देखकर सभी संत अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने श्री जयमल जी को आशीर्वाद दिया और उनकी भक्ति व सेवा भावना की भूरि-भूरि प्रशंसा की।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
राजा जयमल सिंह जी का ठाकुरजी की सेवा का कठोर नियम

श्री वीरम सिंह जी के सुपुत्र, परम भक्त श्री जयमल सिंह जी का प्रारंभिक निवास मेड़ते नगर में था, किंतु बाद में वे जोधपुर नगर में निवास करने लगे। वे श्री ठाकुर जी की सेवा और आराधना में अत्यधिक अनुरक्त थे, क्योंकि वे श्री हितहरिवंश जी के परम शिष्य थे। उनकी भक्ति और सेवा में ऐसी गहरी तन्मयता थी कि सेवा काल में किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा उन्हें सहन नहीं होती थी।

श्री जयमल सिंह जी प्रतिदिन अपने मंदिर में नियमपूर्वक दस घड़ी, अर्थात् चार घंटे, की सेवा करते थे। इन चार घंटों के दौरान वे एक ही आसन पर बैठे भगवान का स्मरण करते, भजन करते और सेवा में पूर्ण रूप से लीन हो जाते। उन्होंने अपने राज्य में स्पष्ट घोषणा की हुई थी कि उनके भजन और पूजा के समय, अर्थात् इन चार घंटों में, यदि कोई व्यक्ति उनकी साधना में विघ्न उत्पन्न करेगा, तो उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। यह नियम इसलिए था ताकि कोई भी उनके भक्ति-समर्पण के क्षणों में बाधा न डाले और उनकी साधना में पूरी तन्मयता बनी रहे। उनके इस नियम की गंभीरता से सभी परिचित थे, और इसी कारण सेवा के समय लोग उनके निकट जाने से भी संकोच करते थे।

जब ठाकुरजी की सेवा के समय मंडोवर के राजा ने किया आक्रमण

श्री जयमल सिंह जी के एक भाई मंडोवर के राजा थे, जो उनसे शत्रुता रखते थे। उन्होंने कई बार जयमल जी पर आक्रमण करने का प्रयास किया, परंतु जयमल जी अद्वितीय योद्धा और वीर होने के कारण उन्हें हर बार विफल कर देते। तब किसी ने मंडोवर के राजा को एक गुप्त बात बताई। उसने कहा, “राजन, क्या आपको पता है कि जयमल सिंह जी का एक नियम है? वे प्रतिदिन चार घंटे ठाकुर जी की सेवा में लीन रहते हैं, और इस समय में उन्हें कोई भी बाधित नहीं कर सकता।” इस भेद का पता चलते ही,मंडोवर के राजा ने एक विशाल सेना संगठित की और श्री जयमल सिंह जी की पूजा के समय मेड़ता नगर को चारों ओर से घेर लिया।

नगर के मंत्री, महामंत्री, और सेनापति सभी चिंता में दौड़ने लगे कि इस संकट की घड़ी में क्या उपाय किया जाए। सभी बोले, “यह तो वही समय है जब श्री जैमल सिंह जी ठाकुर जी की भक्ति में लीन हैं; हमें उनके भजन में विघ्न डालने का साहस नहीं है।” तब सबने जाकर राजमाता से निवेदन किया कि संकट को हल करने का कोई मार्ग सुझाएं, क्योंकि राजमाता को ही यह अधिकार था कि वे जयमल सिंह जी की साधना में प्रवेश कर उनसे बात कर सकती थीं।

राजमाता ने स्थिति को समझते हुए कहा, “ठहरो, मैं स्वयं जाकर उनसे बात करती हूँ।” इसके बाद वे सीधे मंदिर की ओर बढ़ीं, जहाँ श्री जयमल सिंह जी गहन साधना में लीन थे। सारी बात सुनने के बाद, श्री जयमल सिंह जी ने केवल इतना ही कहा, “भगवान की इच्छा सर्वोपरि है। वे ही सब भला करेंगे।” इतना कहकर वे शांतिपूर्वक ठाकुर जी की सेवा में लीन रहे, जैसे उनके हृदय में कोई चिंता या भय न हो।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
जब प्रभु श्रीराम ने स्वयं रणभूमि में कवच धारण कर शत्रु सेना को हराया

जैसे ही श्री जयमल सिंह जी की विनम्र वाणी ठाकुर जी तक पहुँची, उनकी करूणा का सागर उमड़ पड़ा। इतने मेंही श्यामवर्ण के प्रभु श्रीराम, पीली पीतांबरी धारण किए, गले में सुंदर वज्रंती माला और आभूषणों से सुसज्जित, सिर पर मुकुट और एक वीर योद्धा की तरह कवच धारण किए हुए प्रकट हुए। कंधे पर धनुष-बाण लिए, प्रभु श्रीराम ने तुरंत श्री जयमल जी के प्रिय अश्व का चयन किया – वही अश्व जिस पर बैठकर जैमल जी युद्ध के लिए जाया करते थे। भगवान उस घोड़े पर सवार होकर राजमहल की छत पर पहुँच गए और वहां से चारों ओर दृष्टि घुमाई।

इसके बाद प्रभु श्रीराम ने उस छत से रणभूमि में एक तेजस्वी छलांग लगाई। उनका दिव्य स्वरूप, उनकी अनुपम छटा और चेहरे पर तेज देख, शत्रु सेना सम्मोहित हो उठी। प्रभु ने बिना एक भी बाण चलाए, मात्र अपनी उपस्थिति और उनकी आभा से ऐसा प्रभाव उत्पन्न किया कि शत्रु सेना जैसे सुषुप्त अवस्था में ढल गई। श्रीराम के दिव्य सौंदर्य, उनकी दृष्टि के कटाक्ष, और उनके अंगों से उठती सुगंध ने सेना को ऐसी मुग्धावस्था में डाल दिया कि सभी सैनिक अपने अस्त्र-शस्त्र छोड़कर भूमि पर गिर पड़े।

इस प्रकार, प्रभु श्रीराम ने क्षण मात्र में समस्त शत्रु सेना को निष्क्रिय कर दिया। रणभूमि को शांति प्रदान कर वे पुनः महल में लौट आए, अश्व को मुक्त किया, और अपने मंदिर में वापस जाकर व्यवस्थित हो गए।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
रणभूमि में ठाकुर जी के दर्शन से शत्रु बना भक्त

जैसे ही श्री जयमल जी के चार घंटे की साधना पूर्ण हुई, उन्होंने ठाकुर जी को प्रणाम किया और तुरंत रणभूमि में जाने का आदेश दिया। उनकी आज्ञा मिलते ही मंत्री, महामंत्री, सेनापति सभी तत्पर हो गए, और पूरी सेना को एकत्रित करने की तैयारी होने लगी। श्री जयमल जी ने अपने कवच धारण किए, सिर पर मुकुट सजाया, और अपने प्रिय अस्त्र-शस्त्र हाथ में लिए। फिर उन्होंने कहा, “मेरा अश्व लाओ।”

जैसे ही उनका प्रिय घोड़ा लाया गया, वे चकित रह गए। उस घोड़े से अद्भुत दिव्य सुगंध आ रही थी, उसका शरीर पसीने से तर था, मुँह से झाग निकल रहे थे, और उसकी साँसें तेज चल रही थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो घोड़ा अभी-अभी युद्ध से लौटकर आया हो। श्री जयमल जी ने हैरानी से पूछा, “यह घोड़ा थका हुआ क्यों है? इसकी देह पर मिट्टी के निशान हैं और यह शिथिल पड़ा है, जैसे किसी ने इस पर कठिन यात्रा की हो।”

कुछ पल इस अद्भुत घटना पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा, “अब देर नहीं करनी है। दूसरा घोड़ा लाओ।” वे नए घोड़े पर सवार होकर अपनी सेना के साथ मुख्य द्वार से बाहर निकले, तो सामने का दृश्य देख कर स्तब्ध रह गए। रणभूमि में जितनी शत्रु सेना एकत्रित थी, वह सभी गहरी निद्रा में पड़ी थी; उनके अस्त्र-शस्त्र बिखरे हुए थे, मानो सभी किसी दिव्य निद्रा में ढल गए हों।

जयमल जी ने अपने सैनिकों को भेजा और कहा, “जाकर देखो क्या स्थिति है।” सैनिकों ने जाकर देखा और लौटकर बोले, “महाराज, यह अद्भुत चमत्कार है! शत्रु सेना में किसी को भी बाण या तलवार की चोट नहीं लगी है। सबके प्राण सुरक्षित हैं, उनकी श्वास चल रही है, लेकिन वे सभी गहरी निद्रा में हैं, सुषुप्त अवस्था में पड़े हैं।”

जयमल जी ने कहा, “वह राजा कहाँ है जो हमारे नगर पर आक्रमण करने आया था?” सैनिकों ने बताया कि वह भी अपने रथ में निद्रित पड़ा है। जयमल जी तुरंत वहाँ पहुँचे और उसके ऊपर जल का छिड़काव किया। जब वह राजा होश में आया, तो जयमल जी ने उससे पूछा, “यह सब तुमने क्या किया? अपनी सेना लेकर यहाँ आए, लेकिन आक्रमण क्यों नहीं किया? और अब तुम्हारी सेना इस प्रकार सोई क्यों पड़ी है?”

होश में आते ही वह राजा काँपते हुए बोला, “हे जयमल जी, आज मैं आपसे विनम्र प्रार्थना करता हूँ। मेरी एक अंतिम इच्छा पूरी कर दीजिए।” जयमल जी ने कहा, “भाई, हुआ क्या?”

राजा ने काँपते हुए कहा, “आपके नगर से ही एक सांवला योद्धा, सोलह वर्षीय, घुँघराले बालों वाला, दीर्घ नेत्रों से दमकता, किले की छत से अश्व पर सवार होकर उतरा। उसके कंधे पर धनुष और बाण सजे हुए थे। उसने रणभूमि में बाण तो कम चलाए, पर उसकी तिरछी चितवन, मंद मुस्कान, और दिव्य तेज ने हम सबको घायल कर दिया। मेरे प्राण उस सांवले योद्धा के दर्शन में अटके हुए हैं। बस, मुझे एक बार उसका दर्शन करवा दीजिए, मैं आपके चरणों में हूँ।”

जयमल जी ने यह सुना और तुरंत समझ गए कि यह कोई और नहीं, स्वयं ठाकुर जी थे, जिन्होंने उनकी रक्षा के लिए लीला रचाई थी। भावविभोर होकर वे उस राजा के सामने बोले, “तू सचमुच सौभाग्यशाली है, तू मेरा शत्रु नहीं रहा। तुझे मेरे आराध्य, प्रभु श्रीराम के दर्शन प्राप्त हुए। वो दिव्य रूप मुझे कभी न मिल सका, और तुझे अपने आँखों से दर्शन हो गए!”

उस राजा के मन की शत्रुता जाती रही। वह बार-बार जयमल जी के चरणों में गिरकर प्रार्थना करने लगा, “मुझे एक बार फिर उस दिव्य योद्धा के दर्शन करा दो, मैं धन्य हो जाऊँ।” जयमल जी की आँखों में आँसू थे, वे समझ गए कि यह ठाकुर जी का प्रेम था, जो उनकी रक्षा में उतर आया था। उस दिन से वह राजा शत्रु नहीं, बल्कि जयमल जी का भक्त बन गया और उनकी सेवा में सदा के लिए समर्पित हो गया।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
राजा जयमलजी की रानी को बालरूप में श्री रघुलालजी के दर्शन

राजा जयमल जी का अपने आराध्य ठाकुरजी के प्रति अपार प्रेम और भक्ति थी। एक गर्मी के दिन, अपने शीतल और सुविधाजनक कक्ष में विश्राम करते हुए उन्होंने सोचा कि यदि यहाँ ख़स की तटिया, हवादार कमरा, और गीले पर्दों के बावजूद गर्मी महसूस हो रही है, तो नीचे स्थित मंदिर में ठाकुरजी को कितनी अधिक असुविधा होती होगी।

इस विचार से प्रेरित होकर राजा ने अपने निवास के छत पर एक हवादार, सुंदर कक्ष का निर्माण करवाया। इस कक्ष में भगवत लीलाओं के अनेक सुंदर चित्र अंकित करवाए गए थे। वहां कोमल शैया, रेशमी वस्त्र, सोने के पानदान, चंवर और अन्य सेवा-सामग्री सजाई गई थी।

कक्ष तक पहुंचने के लिए एक लकड़ी की सीढ़ी (नसेनी) का प्रबंध किया गया था। राजा स्वयं रात को वहां जाकर पुष्पों से शैया सजाते, शयन भोग, इत्र, जल, पान-तांबूल, और अन्य आवश्यक वस्तुएँ यथास्थान रखते और फिर नीचे आकर सीढ़ी हटा देते। यह सुनिश्चित किया गया कि उनकी अनुपस्थिति में वहां कोई और प्रवेश न करे।

नीचे आने के बाद राजा थोड़ी दूरी पर बैठकर मानसी सेवा में लीन हो जाते। उनके ध्यान में ठाकुरजी का दिव्य स्वरूप रहता—श्री ठाकुरजी शैया पर सुशोभित हैं, पान-तांबूल का आनंद ले रहे हैं, और सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं। यह सेवा राजा की दिनचर्या का अभिन्न हिस्सा बन चुकी थी।

राजा के इस रहस्य से रानी पूरी तरह अनजान थीं। वह सोचती थीं कि राजा तो नित्य 10 घड़ी (4 घंटे) ठाकुरजी की सेवा-पूजा करते हैं, लेकिन इसके बाद छत पर जाकर क्या करते हैं? लेकिन एक रात, जिज्ञासावश रानी ने सीढ़ी लगाई और कक्ष में झांका। परदा थोड़ा हटाकर झांकते ही वह स्तब्ध रह गई। उसने देखा कि शैया पर एक सुंदर सुकुमार किशोर स्वरूप, अत्यंत दिव्यता के साथ विश्राम कर रहे हैं। यह दृश्य देखकर रानी का मन आनन्द और श्रद्धा से भर गया।

रानी बिना कोई व्यवधान डाले चुपचाप नीचे उतर आई और सीढ़ी को वापस अपनी जगह रख दिया। सुबह होते ही उसने राजा को यह अनुभव सुनाया। राजा ने रानी को डांटते हुए कहा कि ऐसी गलती फिर कभी न हो, क्योंकि इससे ठाकुरजी की शांति भंग हो सकती है। लेकिन भीतर ही भीतर राजा प्रसन्न थे कि उनकी रानी को श्री ठाकुरजी के अद्वितीय दर्शन प्राप्त हुए।

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
Bhakt Raja Jaimal Ji: Character of Mirabai’s brother

Rao Duda Ji, the king of Marwar, had three sons – Raimal Ji, Viram Ji, and Ratnasingh Ji. Ratnasingh Ji’s daughter was Bhakt Mirabai, and Shri Raimal Ji’s son was Bhakt Raja Shri Jaimal Ji. Thus, Jaimal Ji and Mirabai were brother and sister.

Rao Jaimal, the king of Merta, was an ardent devotee of Lord Krishna. He received deep values ​​of devotion from his sister Mirabai. Mirabai was the daughter of Rao Jaimal’s uncle, and there was not much difference in the age of both the siblings. At that time, Merta was considered the largest state among the Rathores, and Rao Jaimal was the king of Merta.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
Shri Jaimal Ji’s selfless service to saints

Once, a group of sadhus and saints stayed at Shri Jaimal Ji’s place. At the same time, one of the saints, who had extreme pain in his leg and was unable to walk, had a strong desire to see his Gurudev. His Gurudev was staying in a nearby village. The saint told his problem to Shri Jaimal Ji and asked for a horse from him so that he could ride and see his Gurudev.

Shri Jaimal Ji without wasting any time gave his horse to the saint. The saint reached his Gurudev and got the good fortune of seeing him. When Gurudev saw the horse, its beauty and strength impressed him. He desired to have the horse. Seeing this, his disciple without hesitation dedicated the horse to Gurudev.

When the saint returned, he honestly told the entire incident to Shri Jaimal Ji. Jaimal Ji was pleased to see the saint’s truthfulness and devotion towards his Gurudev. He said, “Whatever I have is for the service of the saints. If you need more horses, please take them without hesitation.”

All the saints were very happy to see this selfless service of Shri Jaimal Ji. They blessed Shri Jaimal Ji and praised his devotion and service spirit.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
Raja Jaimal Singh’s strict rule of serving Thakurji

Sri Viram Singh’s son, the great devotee Shri Jaimal Singh’s initial residence was in Merte Nagar, but later he started living in Jodhpur city. He was deeply devoted to the service and worship of Shri Thakurji, because he was the great disciple of Shri Hitharivansh Ji. He was so deeply absorbed in his devotion and service that he could not tolerate any kind of hindrance during his service.

Sri Jaimal Singh Ji used to serve regularly for ten ghadis, i.e. four hours, in his temple every day. During these four hours, he would sit on one seat and remember God, sing bhajans and get completely absorbed in service. He had clearly declared in his kingdom that during his bhajans and worship, i.e. during these four hours, if any person creates a hindrance in his worship, he would be given the death penalty. This rule was so that no one could disturb his moments of devotion and surrender and he could remain completely absorbed in his worship. Everyone was aware of the seriousness of this rule of his, and that is why people were hesitant to even go near him during service.

When the King of Mandovar attacked during the service of Thakurji

One of Shri Jaimal Singh’s brothers was the King of Mandovar, who was hostile towards him. He tried to attack Jaimal ji many times, but Jaimal ji being a unique warrior and brave, foiled them every time. Then someone told a secret to the King of Mandovar. He said, “Rajan, do you know that Jaimal Singh ji has a rule? He spends four hours every day in the service of Thakurji, and no one can disturb him during this time.” On knowing this secret, the King of Mandovar organized a huge army and surrounded the city of Merta from all sides during the worship of Shri Jaimal Singh ji.

The Minister, Chief Minister, and Commander of the city all started running around in worry as to what should be done in this hour of crisis. Everyone said, “This is the time when Shri Jaimal Singh ji is engrossed in the devotion of Thakurji; we do not have the courage to disturb his worship.” Then everyone went and requested the Queen Mother to suggest a way to solve the problem, as only the Queen Mother had the right to enter Jaimal Singh Ji’s meditation and talk to him.

Understanding the situation, the Queen Mother said, “Wait, I will go and talk to him myself.” After this she went straight to the temple, where Shri Jaimal Singh Ji was engrossed in deep meditation. After listening to everything, Shri Jaimal Singh Ji only said, “God’s will is supreme. He will do everything good.” Having said this, he remained peacefully engrossed in the service of Thakur Ji, as if there was no worry or fear in his heart.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
When Lord Shri Ram Himself wore armor on the battlefield and defeated the enemy army

As soon as Shri Jaimal Singh Ji’s humble words reached Thakur Ji, he was filled with compassion. Just then, the dark-skinned Lord Shri Ram appeared, wearing yellow Pitambar, adorned with beautiful Vajraanti garland and ornaments around his neck, crown on his head and wearing armor like a brave warrior. With bow and arrow on his shoulder, Lord Shri Ram immediately selected Shri Jaimal Ji’s favorite horse – the same horse on which Jaimal Ji used to go to war. The Lord rode on that horse and reached the roof of the palace and looked around from there.

After this, Lord Shri Ram took a stunning leap from that roof to the battlefield. Seeing His divine form, His unique radiance and the radiance on His face, the enemy army became mesmerized. Without shooting a single arrow, the Lord created such an effect with just His presence and His aura that the enemy army fell into a dormant state. The divine beauty of Shri Ram, the glances of his eyes, and the fragrance emanating from his body put the army in such a state of enchantment that all the soldiers dropped their weapons and fell on the ground.

Thus, Lord Shri Ram neutralized the entire enemy army in a moment. After providing peace to the battlefield, he returned to the palace, freed the horse, and went back to his temple and settled down.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
The sight of Thakur Ji on the battlefield turned the enemy into a devotee

As soon as Shri Jaimal Ji’s four-hour long meditation was over, he bowed to Thakur Ji and ordered to go to the battlefield immediately. As soon as he gave his order, the minister, the chief minister, the commander, all were ready, and preparations began to assemble the entire army. Shri Jaimal Ji wore his armour, adorned his crown on his head, and took his favourite weapons in his hands. Then he said, “Bring my horse.”

As soon as his favourite horse was brought, he was astonished. A wonderful divine fragrance was coming from that horse, its body was drenched in sweat, foam was coming out of its mouth, and its breathing was fast. It appeared as if the horse had just returned from the war. Shri Jaimal Ji asked in surprise, “Why is this horse tired? There are marks of mud on its body and it is lying limp, as if someone has undertaken a difficult journey on it.”

After contemplating this amazing event for a few moments, he said, “Now we must not delay. Bring another horse.” He rode on the new horse and came out of the main gate with his army. He was stunned to see the scene in front of him. All the enemy forces gathered on the battlefield were in deep sleep; their weapons were scattered, as if everyone had fallen into a divine sleep.

Jaimal ji sent his soldiers and said, “Go and see what the situation is.” The soldiers went and saw and returned and said, “Maharaj, this is an amazing miracle! No one in the enemy army has been injured by an arrow or sword. Everyone is alive, they are breathing, but they are all in deep sleep, lying in a dormant state.”

Jaimal ji said, “Where is that king who had come to attack our city?” The soldiers told that he was also lying asleep in his chariot. Jaimal ji immediately reached there and sprinkled water on him. When that king regained consciousness, Jaimal ji asked him, “What did you do? You came here with your army, but why did you not attack? And why is your army sleeping like this now?”

As soon as he regained consciousness, the king said tremblingly, “O Jaimal ji, today I humbly request you. Please fulfill one last wish of mine.” Jaimal ji said, “Brother, what happened?”

The king said tremblingly, “A dark warrior from your city, sixteen years old, curly haired, shining with long eyes, came down from the roof of the fort on a horse. He had a bow and arrows on his shoulders. He fired fewer arrows on the battlefield, but his sidelong glance, faint smile, and divine radiance injured us all. My life is stuck in seeing that dark warrior. Just let me see him once, I am at your feet.”

Jaimal ji heard this and immediately understood that it was none other than Thakur ji himself, who had created a leela to protect him. Overwhelmed with emotion, he said to the king, “You are indeed fortunate, you are no longer my enemy. You have received the darshan of my idol, Lord Shri Ram. I could never see that divine form, and you have seen it with your own eyes!”

The hostility in the king’s mind vanished. He repeatedly fell at the feet of Jaimal ji and prayed, “Let me see that divine warrior once again, may I be blessed.” There were tears in Jaimal ji’s eyes, he understood that it was Thakur ji’s love, which had come to his rescue. From that day onwards, the king was no longer an enemy, but became a devotee of Jaimal ji and devoted himself to his service forever.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
Raja Jaimal’s queen gets darshan of Shri Raghulalji in child form

Raja Jaimal ji had immense love and devotion for his beloved Thakurji. One summer day, while resting in his cool and comfortable room, he thought that if it is hot here despite the khas mat, airy room, and wet curtains, then how much discomfort Thakurji would be facing in the temple below.

Inspired by this thought, the king got an airy, beautiful room constructed on the roof of his residence. Many beautiful pictures of Bhagavat Leelas were painted in this room. Soft beds, silken clothes, gold paandaan, chavar and other service materials were decorated there.

A wooden ladder (naseni) was arranged to reach the room. The king himself would go there at night and decorate the bed with flowers, place bed bhog, perfume, water, paan-tambul and other necessary items in their place and then come down and remove the ladder. It was ensured that no one else entered the room in his absence.

After coming down, the king would sit at a distance and get absorbed in Manasi Seva. He would keep the divine form of Lord Thakur in his mind – Shri Thakurji is adorned on the bed, enjoying paan-tambul, and is comfortably sleeping. This service had become an integral part of the king’s daily routine.

The queen was completely unaware of this secret of the king. She used to think that the king serves and worships Lord Thakurji for 10 ghadi (4 hours) every day, but what does he do after that on the roof? But one night, out of curiosity, the queen put up a ladder and peeped into the room. As soon as she peeped after slightly removing the curtain, she was stunned. She saw that a beautiful, tender adolescent form was resting on the bed with utmost divinity. Seeing this scene, the queen’s heart was filled with joy and devotion.

The queen came down quietly without any disturbance and put the ladder back in its place. In the morning, she narrated this experience to the king. The king scolded the queen and said that such a mistake should never be repeated again, because it can disturb the peace of Lord Thakurji. But deep inside the king was happy that his queen got the unique darshan of Lord Thakurji.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
ભક્ત રાજા જયમલજી: મીરાંબાઈના ભાઈનું ચરિત્ર

મારવાડના નરેશ રાવ દૂદાજીના ત્રણ પુત્ર હતા – રાયમલજી, વીરમજી અને રત્નસિંહજી. રત્નસિંહજીની પુત્રી ભક્ત મીરાંબાઈ હતી, અને રાયમલજીના પુત્ર ભક્ત રાજા જયમલજી હતા. આ રીતે, જયમલજી અને મીરાંબાઈ ભાઈ-બહેન હતાં.

મેડતાના નરેશ રાવ જયમલ શ્રી કૃષ્ણના અનન્ય ઉપાસક હતા. તેઓને ભક્તિના ઊંડા સંસ્કાર તેમની બહેન મીરાંબાઈ પાસેથી મળ્યા હતા. મીરાંબાઈ રાવ જયમલના કાકાના પુત્રી હતા, અને બંને ભાઈ-બહેનની ઉંમરમા વધારે તફાવત નહોતો. તે સમય દરમિયાન રાઠોડોમાં મેડતા રિયાસતને સૌથી મોટી માનવામાં આવતી હતી, અને રાવ જયમલ મેડતાના રાજા હતા.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
સંતોની સેવામાં શ્રી જયમલ જીની નિ:સ્વાર્થ ભાવના

એક વખત, સાધુ-સંતોની ટોળકી શ્રી જયમલજીના અહીં રોકાઈ હતી. તે સમય દરમિયાન, સંતોમાંથી એક સંત, જેમના પગમાં ભારે પીડા હતી અને ચાલવામાં અસમર્થ હતા, તેમના ગુરુદેવના દર્શન કરવાની પ્રબળ ઇચ્છા રાખતા હતા. તેમના ગુરુદેવ નજીકના એક ગામમાં રોકાયા હતા. સંતે પોતાની સમસ્યા શ્રી જયમલજીને જણાવી અને તેમની પાસે ઘોડો માંગ્યો, જેથી તેઓ સવારી કરીને ગુરુદેવના દર્શન કરી શકે.

શ્રી જયમલજીએ વિલંબ કર્યા વિના તે સંતને પોતાનો ઘોડો પ્રદાન કર્યો. સંત પોતાના ગુરુદેવના પાંસે પહોંચ્યા અને દર્શનનું સૌભાગ્ય પ્રાપ્ત કર્યું. ગુરુદેવે જ્યારે ઘોડાને જોયો, ત્યારે તેની સુંદરતા અને શક્તિએ તેમને પ્રભાવિત કર્યા. તેમના મનમાં તે ઘોડાને મેળવવાની ઇચ્છા જાગી. આ જોઈને તેમના શિષ્યએ વિના સંકોચે તે ઘોડો ગુરુદેવને સમર્પિત કરી દીધો.

જ્યારે સંત પરત આવ્યા, ત્યારે તેમણે આ આખી ઘટના ઈમાનદારીપૂર્વક શ્રી જયમલજીને કહી. સંતની સચ્ચાઈ અને તેમના ગુરુદેવ પ્રત્યેની ભક્તિ જોઈને શ્રી જયમલજી પ્રસન્ન થયા. તેમણે કહ્યું, “મારા પાસે જે કંઈ છે તે સંતસેવાના માટે જ છે. જો વધુ ઘોડાઓની જરૂર હોય, તો ખચકાટ વિના લઈ જજો.”

શ્રી જયમલજીની આ નિસ્વાર્થ સેવાની ભાવનાને જોઈને તમામ સંતો અત્યંત ખુશ થયા. તેમણે શ્રી જયમલજીને આશીર્વાદ આપ્યા અને તેમની ભક્તિ અને સેવા ભાવનાની પ્રશંસા કરી.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
ઠાકુરજીની સેવા કરવાનો રાજા જયમલસિંહજીનો કડક નિયમ

શ્રી વીરમસિંહજીના પુત્ર, પરમ ભક્ત શ્રી જયમલસિંહજીનું પ્રારંભિક નિવાસ મેડતાના નગરમાં હતું, પરંતુ બાદમાં તેઓ જોધપુર નગરમાં રહેવા લાગ્યા. તેઓ શ્રી ઠાકુરજીની સેવા અને આરાધનામાં અત્યંત સમર્પિત હતા, કારણ કે તેઓ શ્રી હિતહરિવંશજીના પરમ શિષ્ય હતા. તેમની ભક્તિ અને સેવામાં એવી ઊંડાણપૂર્વકની તન્મયતા હતી કે સેવાની વેળામાં કોઈપણ પ્રકારની વિઘ્નબાધા તેમને સહન નહોતી થતી.

શ્રી જયમલસિંહજી દરરોજ તેમના મંદિરમાં નિયમિતપણે દસ ઘડી, એટલે કે ચાર કલાક, સેવા કરતા હતા. આ ચાર કલાક દરમિયાન તેઓ એક જ આસન પર બેસી ભગવાનનું સ્મરણ કરતા, ભજન કરતા અને સેવામાં સંપૂર્ણ રીતે લીન રહેતા. તેમણે તેમના રાજ્યમાં સ્પષ્ટ જાહેર કર્યું હતું કે તેમના ભજન અને પૂજાની વેળામાં, એટલે કે આ ચાર કલાકમાં, જો કોઈ વ્યક્તિ તેમની સાધનામાં વિઘ્ન ઉપજાવશે, તો તેને મૃત્યુદંડ આપવામાં આવશે.

આ નિયમ એટલા માટે હતો કે કોઈપણ વ્યક્તિ તેમના ભક્તિ અને સમર્પણના ક્ષણોમાં વ્યવધાન ન પેદા કરે અને તેમની સાધનામાં સંપૂર્ણ તન્મયતા જળવાય. તેમના આ નિયમની ગંભીરતાથી બધા પરિચિત હતા, અને આ કારણસર સેવાના સમયે લોકો તેમના નજીક જવાની પણ હિંમત કરતા નહોતા.

જ્યારે ઠાકુરજીની સેવાના સમયે મંડોવરના રાજાએ કર્યો હુમલો

શ્રી જયમલસિંહજીના એક ભાઈ મંડોવરના રાજા હતા, જેઓ તેમના પ્રત્યે શત્રુતા ધરાવતા હતા. તેઓએ ઘણી વાર જયમલસિંહજી પર આક્રમણ કરવાનો પ્રયાસ કર્યો, પરંતુ જયમલસિંહજી અપાર પરાક્રમી અને શૂરવીર હતા, જેના કારણે મંડોવરનો રાજા પ્રત્યેક વખતે નિષ્ફળ ગયો. ત્યારબાદ કોઈએ મંડોવરના રાજાને એક ગુપ્ત વાત કહી. તેણે કહ્યું, “મહારાજ, શું તમે જાણો છો કે જયમલસિંહજીના જીવનમાં એક મહત્વપૂર્ણ નિયમ છે? તેઓ દરરોજ ચાર કલાક ઠાકુરજીની સેવામાં લીન રહે છે અને આ સમયે તેમને કોઈ પણ પ્રકારે વિક્ષેપ કરી શકતું નથી.” આ વાત જાણતા જ મંડોવરના રાજાએ મોટી સેનાને એકઠી કરી અને જયમલસિંહજીના પૂજાના સમય દરમિયાન મેડતા નગરને ચારે બાજુથી ઘેરી લીધું.

નગરના મંત્રી, મહામંત્રી અને સેનાપતિ ખૂબ જ ચિંતિત થઈ દોડવા લાગ્યા કે આ મુશ્કેલીના સમયે શું કરવું. બધા બોલ્યા, “આ તો એ જ સમય છે જ્યારે શ્રી જયમલસિંહજી ઠાકુરજીની ભક્તિમાં લીન છે; અમને તેમના ભજનમાં વ્યાધાન લાવવાનું સાહસ નથી.” ત્યારબાદ બધાએ જઈને રાજમાતાને વિનંતી કરી કે આ સંકટ હલ કરવા માટે કોઈ માર્ગ સૂચવે, કેમ કે માત્ર રાજમાતા પાસે જ આ અધિકાર હતો કે તેઓ જયમલસિંહજીની સાધનામાં પ્રવેશ કરીને તેમને વાત કરી શકે.

રાજમાતા એ સ્થિતિને સમજીને કહ્યું, “થોભો, હું પોતે જ જઈને તેમની સાથે વાતચીત કરીશ.” તે પછી તેઓ સીધા મંદિર તરફ આગળ વધ્યા, જ્યાં શ્રી જયમલસિંહજી ગંભીર સાધનામાં લીન હતા. આખી વાત સાંભળ્યા બાદ, શ્રી જયમલસિંહજીએ માત્ર એટલું જ કહ્યું, “ભગવાનની ઇચ્છા સર્વોપરી છે. તેઓ જ બધું સારું કરશે.” એટલું કહીને તેઓ શાંતિપૂર્વક ઠાકુરજીની સેવામાં વ્યસ્ત રહી ગયા, જાણે તેમના હૃદયમાં કોઈ ચિંતાનો ભાવ જ નહોતો.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
જ્યારે ભગવાન શ્રીરામે પોતે જ રણભૂમિમાં કવચ ધારણ કરીને શત્રુ સેનાને હરાવી

શ્રી જયમલ સિંહ જીના નમ્ર શબ્દો ઠાકુરજી સુધી પહોંચતા જ તેમનો કરુણાનો સાગર છલકાઈ ગયો. તે ક્ષણમાં જ શ્યામવર્ણના ભગવાન શ્રીરામ, પીળા પીતાંબર પહેરેલા, ગળામાં સુંદર વજ્રંતી માળા અને આભૂષણોથી સજ્જ, મસ્તક પર મુકુટ અને એક વીર યોધ્ધાની જેમ કવચ ધારણ કરી પ્રગટ થયા. ખભા પર ધનુષ-બાણ ધારણ કરીને, ભગવાન શ્રીરામે તરત જ શ્રી જયમલસિંહજીના પ્રિય ઘોડાનું પસંદગી કરી – એ જ ઘોડું, જેના પર બેઠા રહ્યા કરીને જયમલસિંહજી યુદ્ધ માટે જતા હતા. ભગવાન એ ઘોડા પર સવાર થઈ રાજમહેલની છત પર પહોંચી ગયા અને ત્યાંથી ચારે બાજુ જોવું શરૂ કર્યું.

પછી ભગવાન શ્રીરામે તે છત પરથી રણભૂમિમાં એક તેજસ્વી ઉડકો માર્યો. તેમનું દિવ્ય સ્વરૂપ, તેમની અનોપમ સુંદરતા અને મુખ પરનો તેજ જોઈને શત્રુ સેનાને મોહિત થઈ ગઈ. ભગવાને એક પણ બાણ છોડ્યા વગર, માત્ર તેમની ઉપસ્થિતિ અને દિવ્ય આભાથી એવું પ્રભાવ પેદા કર્યું કે શત્રુ સેના જાણે સુષુપ્ત અવસ્થામાં ઢળી ગઈ. ભગવાનના દિવ્ય સૌંદર્ય, તેમની દ્રષ્ટિના કટાક્ષ અને તેમના અંગોથી આવતી સુગંધે સેનાને એના મોહમાં પાડી દીધી, અને બધા જ સૈનિકોએ તેમના શસ્ત્ર ત્યજી જમીન પર પડી ગયા.

આ રીતે, ભગવાન શ્રીરામે ક્ષણ માત્રમાં સમગ્ર શત્રુ સેનાને નિષ્ક્રિય બનાવી દીધી. રણભૂમિમાં શાંતિ પુરી કરીને તેઓ ફરી મહેલમાં પાછા આવ્યા, ઘોડાને મુક્ત કર્યો અને તેમના મંદિરમાં પાછા જઈ ફરીથી વ્યવસ્થિત થઈ ગયા.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
જ્યારે રણભૂમિમાં ઠાકુરજીએ દર્શન આપ્યા અને શત્રુ બન્યો ભક્ત

શ્રી જયમલ જીનું ચાર કલાકનું ધ્યાન પૂર્ણ થતાં જ તેમણે ઠાકુરજીને પ્રણામ કર્યા અને તેમને તરત જ યુદ્ધભૂમિ પર જવાનો આદેશ આપ્યો. તેમની આજ્ઞા મળતાં જ મંત્રી, મહામંત્રી અને સેનાપતિઓ તરત જ સજ્જ થઈ ગયા અને સમગ્ર સેના એકત્રિત કરવાની તૈયારીઓ શરૂ થઈ. શ્રી જયમલસિંહજીએ પોતાના કવચ ધારણ કર્યા, મસ્તકે મુકુટ સજાવ્યું અને પોતાના પ્રિય શસ્ત્રો હાથમાં લીધા. તેઓએ આજ્ઞા કરી, “મારો ઘોડો લાવો.”

તેનો પ્રિય ઘોડો લાવવામાં આવતાં જ તે આશ્ચર્યચકિત થઈ ગયા. એ ઘોડામાંથી અદ્દભુત દિવ્ય સુગંધ આવી રહી હતી, તેનું શરીર પસીનાથી ભીનું હતું, મોઢેથી ફીણ નીકળતું હતું અને શ્વાસ તેજ ઝડપે ચાલી રહી હતી.એવું લાગતું હતું કે ઘોડો હમણાં જ યુદ્ધમાંથી પાછો આવ્યો છે. શ્રી જયમલસિંહજી આશ્ચર્યથી પૂછ્યું, “આ ઘોડો કેમ થાક્યો છે? આના શરીર પર માટી ના નિશાન કેમ છે? તે શિથિલ કેમ લાગે છે?”

થોડી ક્ષણો માટે આ અદ્ભુત ઘટના પર વિચાર કર્યા પછી, તેણે કહ્યું, “હવે વિલંબ કરવાની જરૂર નથી. બીજો ઘોડો લાવો.” તેમણે નવું ઘોડું લઈને સેનાના સાથે મુખ્ય દ્વાર તરફ યાત્રા કરી. પરંતુ, બાહર નીકળી તેઓ જે દ્રશ્ય જોયું તે જોઈને તેઓ સ્તબ્ધ થઈ ગયા. રણભૂમિમાં શત્રુ સેના, જે આક્રમણ માટે એકત્રિત થઈ હતી, તે સર્વે ઊંઘમાં પડી હતી. તેમના શસ્ત્રો વેરવિખેર થઈ ગયા હતા, જાણે બધા જ કોઈ દિવ્ય નિદ્રામાં ઊંઘી ગયા હતા.

જયમલસિંહજીએ પોતાના સૈનિકોને રણભૂમિમાં જવા કહ્યું અને આ ઘટનાની તપાસ કરવા જણાવ્યું. સૈનિકોએ તપાસ કરી અને પાછા આવી કહ્યું, “મહારાજ, આ તો અદભુત ચમત્કાર છે! શત્રુ સેનાના કોઈ પણ સૈનિકને બાણ કે તલવારથી ઈજા નથી થઈ. તેઓ બધા જીવિત છે, તેમની શ્વાસ ચાલી રહી છે, પણ તેઓ દિવ્ય નિદ્રામાં છે.”

જયમલસિંહજીએ પૂછ્યું, “તે રાજા ક્યાં છે જે અમારા નગર પર આક્રમણ કરવા આવ્યો હતો?” સૈનિકોએ જણાવ્યું કે તે પણ પોતાના રથમાં સૂઈ રહ્યો છે. જયમલસિંહજી તરત જ ત્યાં ગયા અને તેના પર પાણી છાંટ્યું. રાજા જાગ્યો અને ભયભીત અવસ્થામાં તેના હોશ પાછા આવ્યા. જયમલસિંહજીએ પૂછ્યું, “આ બધું શું છે? તું અહીંયા યુદ્ધ માટે આવ્યો હતો, પણ આક્રમણ કેમ નહીં કર્યું? અને હવે તમારી સેના આ રીતે કેમ સૂઈ રહી છે?

રાજાએ ભયભીત અવાજમાં કહ્યું, “હે જયમલજી, હું તમને વિનમ્ર પ્રાર્થના કરું છું. મારી એક છેલ્લી ઇચ્છા પૂરી કરો.” જયમલસિંહજીએ કહ્યું, “તને શું થયું છે? તારી ઇચ્છા શું છે?”

રાજાએ ધ્રૂજતા કહ્યું, “તમારા નગરમાંથી એક સાંવળો યુવાન યોધ્ધા, વાંકડિયા વાળવાળો, લાંબા આંખોથી ઝગમગતો, કિલ્લાની છત પરથી ઘોડા પર સવાર થઈ ઉતર્યો હતો. તેની ખભા પર ધનુષ-બાણ હતી. તેણે રણભૂમિમાં વધુ બાણ ચલાવ્યા નહતા, પણ તેના તિરછા નજર, મીઠી સ્મિત અને દિવ્ય તેજે અમને જકડી લીધા. મારા પ્રાણ તો આ યોધ્ધાના દર્શનમાં અટકી ગયા છે. કૃપા કરીને મારે તેની એકવાર દર્શન કરાવો.”

જયમલસિંહજીએ આ સાંભળ્યું અને તરત જ સમજી ગયા કે આ કોણ હશે. તે સ્વયં ઠાકુરજી હતા, જેઓ રક્ષણ માટે આવી ચડ્યા હતા. ભક્તિભાવથી ભરાઈ જઈ તેમણે રાજાને કહ્યું, “તું સાચે જ સદ્ભાગ્યશાળી છે. હવે તમે મારા દુશ્મન નથી. તને મારા આરાધ્ય શ્રીરામના દર્શન થયા છે. એ દિવ્ય સ્વરૂપ મેં કદી જોયું નથી, અને તું તેને જોયું છે!”

રાજાના મનની શત્રુતા દુર થઈ ગઈ. તે વારંવાર જયમલસિંહજીના ચરણોમાં પડી, પ્રાર્થના કરતો રહ્યો, “મને એકવાર ફરી તે દિવ્ય યોધ્ધાના દર્શન કરાવો, હું ધન્ય થઈ જઈશ.” જયમલસિંહજીના આંખોમાં આંસુ હતા. તેઓ જાણતા હતા કે આ ઠાકુરજીનો અનંત પ્રેમ છે, જેમણે તેમના રક્ષણમાં લીલા કરી હતી. તે દિવસથી રાજા શત્રુ નહીં રહ્યો, પરંતુ ભક્ત બનીને જયમલસિંહજીની સેવા માટે પોતાને સમર્પિત કરી દીધો.

भक्त राजा जयमल जी की कथा: जिनकी रक्षा के लिए भगवान ने रणभूमि में स्वयं मोर्चा संभाला
રાજા જયમલજીની રાણીને બાળરૂપે શ્રી રઘુલાલજીના દર્શન

રાજા જયમલસિંહજીના પોતાના આરાધ્ય ઠાકુરજી પ્રત્યે અસીમ પ્રેમ અને ભક્તિ હતી. ઉનાળાના એક દિવસે, જ્યારે રાજા શીતળ અને આરામદાયક કક્ષમાં આરામ કરી રહ્યા હતા, તેમના મનમાં વિચાર આવ્યો કે જો અહીં ખાસની તટિયા, હવાવાળો કક્ષ અને ભીના પડદાઓ હોવા છતાં ગરમી અનુભવાય છે, તો નીચે મંદિરમાં સ્થિત ઠાકુરજીને કેટલી તકલીફ થતી હશે.

આ વિચારથી પ્રેરાઈને રાજાએ પોતાના નિવાસની છત પર એક હવાદાર અને સુંદર કક્ષનું નિર્માણ કરાવ્યું. આ કક્ષમાં ભગવાનની લીલાઓના અનેક સુંદર ચિત્રો નિર્દેશિત કરાવવામાં આવ્યા હતા. ત્યાં રેશમી ચાદરો અને કોમળ શૈયા, સોનાના પાનદાન, ચામર અને વિવિધ સેવાસામગ્રી સુશોભિત કરવામાં આવી હતી.

આ કક્ષ સુધી પહોંચવા માટે એક લાકડાની નસેની (સિઢી) ગોઠવવામાં આવી હતી. રાજા દરરોજ રાત્રે આ કક્ષમાં જઈને પુષ્પોથી શૈયા સુશોભિત કરતા, શયનભોગ, ઇત્ર, પાણી, પાન-તાંબુલ અને અન્ય આવશ્યક સામગ્રી રાખી અને પછી નીચે આવીને સીઢી હટાવી દેતા. આ વાતની ખાતરી રાખવામાં આવતી કે રાજાની ગેરહાજરીમાં ત્યાં કોઈ પ્રવેશ ન કરે.

રાજા પછી નીચે આવી થોડા અંતરે બેસી માનસી સેવા (ધ્યાનમાં)માં લીન થઈ જતાં. તેમના ધ્યાનમાં ઠાકુરજીના દિવ્ય સ્વરૂપ રહેતાં—શ્રી ઠાકુરજી શૈયા પર સુશોભિત છે, પાન-તાંબુલનો આનંદ માણી રહ્યા છે અને શીતળતા સાથે આરામ કરી રહ્યા છે. આ સેવા રાજાની દિનચર્યાનો અભિન્ન ભાગ બની ગઈ હતી.

રાણી રાજાના આ રહસ્યથી બિલકુલ અજાણ હતી. તે વિચારે કે રાજા તો દૈનિક 10 ઘડી (4 કલાક) સુધી ઠાકુરજીની સેવા કરે છે, પરંતુ ત્યારબાદ છત પર જઈને શું કરે છે? એક રાત્રે, જિજ્ઞાસાથી, રાણીએ સીઢી લગાવી અને કક્ષમાં ઝાંખી. પડદો થોડું ખસેડીને જોવા જતા, તે આશ્ચર્યચકિત થઈ ગઈ. તેણે જોયું કે શૈયા પર એક સુંદર, સુકુમાર, દીવી કિશોર સ્વરૂપ, દિવ્યતાથી ભરપૂર, આરામ કરતા હતા. આ દૃશ્ય જોઈને રાણીનું હ્રદય આનંદ અને શ્રદ્ધાથી ભરી ગયું.

રાણી કોઈ પણ ખલેલ પાડ્યા વિના શાંતિથી નીચે આવી અને સીડી પાછી તેની જગ્યાએ મૂકી. સવારે, તેણે રાજાને પોતાનો અનુભવ જણાવ્યો. રાજાએ રાણીને ઠપકો આપ્યો કે આવી ભૂલ ફરી કદી ન થવી જોઈએ, કારણ કે આથી ઠાકુરજીની શાંતિ ભંગ થઈ શકે છે. પરંતુ અંદરથી રાજા ખુશ હતા કે તેમની રાણીને શ્રી ઠાકુરજીના અનન્ય દર્શન મળ્યા.

Also Read