
“भक्तमाल”, जिसे गुरु नाभा दास जी ने 1585 में लिखा था, भारतीय संतों और भक्तों की अद्भुत कथाओं का अमूल्य संग्रह है। इसमें दो सौ से अधिक भक्तों के जीवन-चरित्र शामिल हैं, जिनमें से एक है भक्त सदन कसाई की प्रेरक कथा।
भक्त सदन भगवान जगन्नाथ के परम भक्त थे। बचपन से ही उनके मन में हरि-नाम के प्रति गहरा प्रेम था। हरि का नाम उनका प्राण था और उनका हृदय निरंतर कीर्तन की मधुर लय में डूबा रहता था। कसाई परिवार में जन्म लेने के बावजूद उनका हृदय करुणा और भक्ति से भरा हुआ था। किसी जीव को मारने का विचार भी उन्हें भीतर तक कंपा देता था।
यद्यपि वे मांस बेचकर जीविका चलाते थे, परंतु उन्होंने कभी किसी जीव की हत्या नहीं की। दूसरों से मांस लाकर बेचना उनकी मजबूरी थी, किन्तु उनका मन हर क्षण भगवान में लीन रहता था।
“जाति-पाँति पूछै नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई।”
यह पंक्ति सदन जी के जीवन में साकार दिखाई देती है। उनकी कथा सिखाती है कि सच्ची भक्ति न जाति देखती है, न पेशा, न परिस्थिति। भक्ति केवल हृदय की निर्मलता और भगवान के प्रति अटूट प्रेम पर आधारित होती है।
आइए, भक्त सदन कसाई की अद्भुत कथा को पढ़ें और जानें कि कैसे भगवान जगन्नाथ ने उनकी भक्ति को अपने हृदय से लगाया।

कसाई सदन जी की भक्ति: मांस तौलते हुए भी भगवान की भक्ति में पूर्ण समर्पण
भक्त श्री सदन जी जन्म से कसाई जाति के थे, लेकिन भक्ति की कसौटी पर उनकी प्रेम और निष्ठा शुद्ध सोने की भांति खरी उतरी। जैसे कसौटी पर कसने पर शुद्ध सोने की चमक निखरकर आती है, वैसे ही सदन जी की भक्ति ने प्रभु के प्रेम में अपनी अनोखी चमक दिखलाई। यद्यपि उनका कर्म कुल परंपरा के अनुसार मांस बेचने का था, लेकिन वे स्वयं किसी जीव की हिंसा नहीं करते थे। वे केवल दूसरों के यहां से मांस लाकर बेचते थे।
एक बार उन्हें राह में एक शालिग्राम शिला मिली, जिसे वे बिना जान-पहचान तराजू पर मांस तोलने के लिए उपयोग में लाने लगे। अद्भुत बात यह थी कि शिला का वजन ग्राहक की मांग के अनुरूप स्वयं ही संतुलित हो जाता था। सदन जी की दिनचर्या चाहे जैसी भी थी, लेकिन उनका मन भगवान की भक्ति में सदा लीन रहता था। जब वे मांस तौलते, तो उनके मुख से हरि नाम का कीर्तन सहज ही फूट पड़ता। उनकी आँखों से अश्रु धाराएँ बहतीं, मानो उनके भीतर से भगवान की ओर प्रेम उमड़ रहा हो।
एक दिन, एक वैष्णव आचार्य साधु वहाँ से गुजरे। उन्होंने सदन कसाई की दुकान पर देखा कि तराजू में शालिग्राम जी रखे हुए हैं। यह देखकर उनके मन में बेचैनी हुई। महात्मा जी ने तुरंत सदन कसाई से कहा, “तुम क्या कर रहे हो? यह कोई साधारण पत्थर नहीं, यह तो साक्षात शालिग्राम भगवान हैं। तुम उनसे मांस तोल रहे हो, यह तो घोर पाप है!” सदन जी ने सिर झुका लिया और कहा, “महाराज, मुझे क्षमा करें। मुझे नहीं पता था कि यह शालिग्राम भगवान हैं। मैंने इसे केवल एक पत्थर समझकर उपयोग किया।”

मांस बेचने वाले की भक्ति पर क्यों रीझ गए शालिग्राम भगवान?
महात्मा जी ने सदन से विनती की और शिला को अपने साथ ले गए। उन्होंने उन्हें शुद्ध जल और पंचामृत से स्नान कराया, चंदन और इत्र लगाया, चाँदी के सिंहासन पर विराजमान किया। फिर भोग लगाया और भक्तिभाव से कीर्तन किया। महात्मा जी की आँखों से आँसू बह रहे थे। वे भगवान से कहने लगे, “हे नाथ, आप उस कसाई के यहाँ क्यों रह रहे थे? अब कृपया यहाँ प्रेमपूर्वक सिंहासन पर विराजें।”
लेकिन उसी रात, महात्मा जी के स्वप्न में शालिग्राम भगवान प्रकट हुए। भगवान ने उनसे कहा, “सुबह होते ही मुझे वापस सदन कसाई के पास पहुँचा दो।” महात्मा जी ने हैरानी से पूछा, “प्रभु, वह व्यक्ति मांस बेचता है। वह आपको तराजू में रखता है। वह स्थान अपवित्र है। आप वहाँ क्यों जाना चाहते हैं?”
भगवान मुस्कुराए और बोले, “कहीं मुझे किसी स्थान पर स्नान का सुख मिलता है, कहीं भोजन का आनंद, कहीं माला पहनने की खुशी, लेकिन सदन के यहाँ मुझे उसकी तराजू पर लुढ़कने में आनंद मिलता है। जब वह वह मांस तोलते हुए कीर्तन करता है, तो मुझे अपार आनंद मिलता है। उसकी सरलता और भक्ति मुझे अत्यंत प्रिय है। मुझे उसके पास ले जाओ।”
सुबह होते ही महात्मा जी ने भगवान की आज्ञा का पालन किया और शालिग्राम जी को लेकर सदन के पास पहुँचे। उन्होंने सदन जी से कहा, “मैंने बहुत बड़ा अपराध किया है, जो श्री शालिग्राम भगवान को आपसे मांगकर ले गया। ठाकुर जी ने स्वयं स्वप्न में मुझे आदेश दिया है कि उन्हें तुम्हारे पास ही रहना है। अब आप इन्हें ले लीजिए और जो चाहे कीजिए—चाहे इनसे मांस तोलिए या पूजा करिए।”
यह सुनते ही सदन जी के हाथ-पैर कांपने लगे। उनकी आँखों से आँसू बहने लगे। उन्होंने शालिग्राम भगवान को प्रेमपूर्वक हृदय से लगा लिया। सदन जी ने मन ही मन सोचा, “मैं इतना अपवित्र, इतना पापी और यह ठाकुर जी, साक्षात भगवान, मुझसे मिलने के लिए व्याकुल हैं! क्या मैं इनके लिए इतना भी नहीं कर सकता कि यह दूषित काम छोड़ दूँ?” उसी क्षण सदन जी ने कुलाचार के अनुसार मांस बेचने का काम भी छोड़ दिया। उनके हृदय में प्रभु श्री जगन्नाथ जी के दर्शन की तीव्र इच्छा जाग उठी।
उन्होंने सोचा, “ज्यादा से ज्यादा क्या होगा? भोजन नहीं मिलेगा, धन नहीं कमाऊँगा। लेकिन इससे बड़ा धन और क्या होगा कि ठाकुर जी मेरे लिए इतने प्रेम से व्याकुल हैं। अब मैं अपने जीवन का हर क्षण ठाकुर जी के चरणों में अर्पित करूंगा।” अपने घर-परिवार, कुल-कुटुंब और संसार के समस्त बंधनों को त्यागकर सदन जी भगवान श्री जगन्नाथ के दर्शन हेतु पुरी धाम के लिए निकल पड़े।

ग़लत आरोपों और हाथ कटने पर भी सदन कसाई का प्रभु के प्रेम में अडिग रहना
सदन कसाई जब तीर्थयात्रा के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, तो उन्होंने देखा कि वैष्णवों की टोलियाँ नाचते-गाते कीर्तन करती हुईं श्रीधाम की ओर बढ़ रही हैं। वे भी उन्हीं के साथ चलने लगे, लेकिन जब उन लोगों को यह पता चला कि सदन जी जाति से कसाई हैं, तो वे उनसे दूरी बनाने लगे और घृणा करने लगे। यह देखकर सदन कसाई स्वयं ही उनका संग छोड़कर दूर-दूर चलने लगे।
आगे रास्ते में एक गाँव आया। सदन कसाई ने भिक्षा के लिए एक घर का दरवाज़ा खटखटाया। घर की स्त्री ने जब उनका सुंदर और तेजस्वी स्वरूप देखा तो मोहित होकर आग्रह किया कि वे वहीं बैठकर भोजन करें। सदन जी ने विनम्रतापूर्वक भोजन किया और जब चलने लगे, तो स्त्री ने अत्यंत आग्रहपूर्वक कहा कि वे रात में वहीं ठहर जाएँ।
सदन कसाई उसके आग्रह पर रात्रि में वहीं विश्राम करने के लिए ठहर गए। जब घर के सभी लोग सो गए, तो वह स्त्री उनके पास आई और प्रेमपूर्वक बोली, “तुम्हें देखकर मैं मोहित हो गई हूँ। कृपया मुझे अपने साथ ले चलो।” सदन कसाई ने शांत स्वर में कहा, “यदि तुम मेरा गला भी काट दो, तब भी मेरा प्रेम केवल प्रभु के लिए ही रहेगा। मैं संसार के मोह से परे हूँ।”
उस स्त्री ने उनकी बात का अर्थ कुछ और ही समझ लिया। उसने सोचा कि अपने पति को हटाने पर ही शायद सदन कसाई का प्रेम उसे प्राप्त हो सकेगा। अज्ञानवश उसने जाकर अपने पति का गला काट दिया और बिना किसी भय के वापस लौटकर सदन कसाई से बोली, “अब तो तुम मुझे स्वीकार करो।”
सदन कसाई यह सुनकर स्तब्ध रह गए। वे व्यथित स्वर में बोले, “देवी, तुमने यह क्या कर दिया? मैंने तो ऐसा कुछ नहीं कहा था।” परंतु वह स्त्री अब अडिग थी। उसने धमकी दी, “या तो मेरे साथ रहो, नहीं तो मैं सबको बताऊँगी कि तुमने ही मेरे पति की हत्या करवाई है।”
सदन कसाई के हृदय में प्रभु का प्रेम इतना दृढ़ था कि वे किसी भी भय या प्रलोभन से विचलित नहीं हुए। उन्होंने शांत भाव से कहा, “मुझे बदनाम कर दो, मुझे मार डालो, पर मैं अपने सत्य और अपने प्रभु से विमुख नहीं हो सकता।”
जब उस स्त्री ने देखा कि सदन जी उसकी इच्छा पूरी नहीं कर रहे, तो उसने अचानक जोर-जोर से शोर मचाना शुरू कर दिया। वह चिल्लाते हुए कहने लगी, “इन्होंने मेरे पति की हत्या कर दी है!” उसके शोर-गुल से गाँव के लोग इकट्ठा हो गए और सदन कसाई पर आरोप लगाते हुए उन्हें राजा के सामने प्रस्तुत किया गया। राजा ने जब उनसे अपराध स्वीकार करने के लिए कहा, तो सदन कसाई शांत भाव से मुस्कुराए और बोले, “सत्य तो प्रभु जानते हैं, मैं यहाँ सफाई देने नहीं आया हूँ।”
राजा ने कहा, “यदि तुम अपराधी हो तो तुम्हारे हाथ काट दिए जाएँगे।”
सदन कसाई ने विनम्रता से अपने दोनों हाथ आगे बढ़ा दिए और बोले, “मेरे प्रभु जगन्नाथ की भी भुजाएँ नहीं हैं। मैं उनके जैसा बनना चाहता हूँ। काट दीजिए, मैं प्रसन्न हूँ।”
राजा के आदेश पर उनके हाथ काट दिए गए। रक्त बह रहा था, पर उनके मुख पर कोई पीड़ा नहीं, केवल आनंद के आँसू थे। वे प्रभु जगन्नाथ का स्मरण करते हुए चलते गए और प्रार्थना करते रहे, “हे नाथ! बस इतना कृपा करना कि मेरा जीवन तब तक रहे जब तक मैं पुरी पहुँचकर आपके दर्शन न कर लूँ।”

प्रभु जगन्नाथ जी की कृपा से कटे हुए हाथों का पुनः प्रकट होना
सदन कसाई जगन्नाथ पुरी की ओर बढ़ते रहे। उनके कटे हुए हाथों से रक्त बहता जा रहा था, पर उनके मुख पर प्रभु प्रेम की मुस्कान थी। जैसे ही वे श्रीधाम पुरी पहुँचे और महाप्रभु के सिंह द्वार पर गिरकर दंडवत करने लगे। इसी समय श्री जगन्नाथ प्रभु की मूर्ति झूमने लगी। पुजारी आश्चर्यचकित हो गए। प्रभु ने कहा, “मेरा भक्त आ गया है। जाओ, उसे पालकी में बैठाकर यहाँ लाओ।”
पंडे और पुजारी सदन को खोजने लगे, लेकिन सदन तो विनम्रता की मूर्ति थे। जब पुजारियों ने उनसे कहा कि भगवान ने उन्हें पालकी पर बैठने की आज्ञा दी है, तब भी उन्होंने पालकी पर चढ़ने से मना कर दिया। लेकिन जब पुजारियों ने उन्हें भगवान का आदेश सुनाया, तब वे विनम्रतापूर्वक पालकी पर बैठे और भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन के लिए चल पड़े।
जैसे ही उन्होंने श्री जगन्नाथ जी का दर्शन किया और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया, उनके हृदय में यह पीड़ा हुई कि उनके हाथ नहीं हैं, जिससे वे भुजाएँ फैलाकर प्रणाम कर सकें। उनके आँसू छलक पड़े। उन्होंने प्रभु से कहा, “हे नाथ, मेरे हाथ होते तो मैं भी आपको दंडवत करता।” उसी क्षण प्रभु जगन्नाथ की कृपा से उनके कटे हुए हाथ पुनः प्रकट हो गए। सदन कसाई प्रभु के चरणों में गिरकर रोने लगे।
भगवान जगन्नाथ जी ने प्रेमपूर्वक कहा, “सदन, तुमने अपने आप को भक्ति की कसौटी पर खरा सिद्ध किया है। तुम्हारा विश्वास और प्रेम अमिट है। अब तुम संसार में भक्ति का प्रचार करो।”

सदन कसाई के पूर्व जन्म का रहस्य
सदन कसाई का जन्म, उनके पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम था। पूर्व जन्म में वे एक काशीवासी कर्मकांडी ज्ञानी एवं भक्त ब्राह्मण थे। उनके जीवन का आधार सत्य, धर्म और वेदों का अध्ययन था, लेकिन एक घटना ने उनके भाग्य की दिशा बदल दी।
एक दिन, एक गाय कसाई के घर से भागती हुई ब्राह्मण के समीप से गुज़री। उसके पीछे-पीछे कसाई उसे खोजता हुआ ब्राह्मण के पास पहुँचा और ब्राह्मण से पूछा, “पंडितजी, क्या आपने इस गली से कोई गाय जाते हुए देखी है?” उस समय ब्राह्मण मौन थे, लेकिन हाथ के इशारे से गाय की दिशा बता दी। कसाई ने उसी ओर जाकर गाय को पकड़ लिया और उसका वध कर दिया।
यह घटना गौहत्या में अप्रत्यक्ष रूप से भागीदार बनने का दोष बन गई। इस अपराध का दंड ब्राह्मण को अगले जन्म में भोगना पड़ा। उनके इस कर्म के कारण ही उन्हें कसाई के घर जन्म लेना पड़ा। कालांतर में, वही गाय अगले जन्म में एक स्त्री बनी और वह कसाई उसका पति। उसी स्त्री के माध्यम से सदना कसाई के हाथ काटे गए। इस दंड के परिणामस्वरूप सदना के पूर्व जन्म के समस्त पापों का नाश हो गया।



